हमारा स्मारक : एक परिचय

श्री टोडरमल जैन सिद्धांत महाविद्यालय जैन धर्म के महान पंडित टोडरमल जी की स्मृति में संचालित एक प्रसिद्द जैन महाविद्यालय है। जिसकी स्थापना वर्ष-१९७७ में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की प्रेरणा और सेठ पूरनचंदजी के अथक प्रयासों से राजस्थान की राजधानी एवं टोडरमल जी की कर्मस्थली जयपुर में हुई थी। अब तक यहाँ से 36 बैच (लगभग 850 विद्यार्थी) अध्ययन करके निकल चुके हैं। यहाँ जैनदर्शन के अध्यापन के साथ-साथ स्नातक पर्यंत लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था है। आज हमारा ये विद्यालय देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हमारे स्मारक के विद्यार्थी आज बड़े-बड़े शासकीय एवं गैर-शासकीय पदों पर विराजमान हैं...और वहां रहकर भी तत्वप्रचार के कार्य में निरंतर संलग्न हैं। विशेष जानकारी के लिए एक बार अवश्य टोडरमल स्मारक का दौरा करें। हमारा पता- पंडित टोडरमल स्मारक भवन, a-4 बापूनगर, जयपुर (राज.) 302015

Sunday, July 28, 2013

Pinkish Day In Pinkcity : Part - III

  इसे पढ़ने से पहले इस श्रंख्ला का भाग एक और भाग दो पढ़ें-
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
जहाँ भी व्यक्तियों की तादाद ज्यादा होती है तो वहाँ संघों का बनना सहज प्रक्रिया है...एक विस्तृत समूह को छोटा करके उसे लघुतर बनाना और उस लघु समूह में अपने अस्तित्व को आयाम देना ये इंसानी फितरत होती है...और जब कभी भी ग्रुप्स का जन्म होता है तो राजनीति, मनमुटाव, नोंक-झोंक, टकराव जैसी चीजें आम होती हैं..एक छोटी-सी क्लास थी 30-35 लोगों की...पर इसे भी कई भागों में बांट दिया था हम सबने... कहीं-कहीं दूसरे ग्रुप्स के प्रति तीव्रतम प्रतिद्वंदता या कभी-कभी तीव्रतम विरुद्धता रहा करती थी..तो कुछेक ग्रुप परस्पर में तटस्थ रहा करते थे। जिनके उसूल होते थे कि सिद्धांतों से समझौता नहीं और व्यवहार में विरोध नहीं...मामला बस इतना होता है कि समरुचि, समप्रतिभा, समख्यालात् ग्रुप्स का निर्माण करते हैं पर कई बार ग्रुप्स का बिखराव हो जाता है कई समानताओं के बावजूद भी और नवीन ग्रुप्स ईजाद हो जाते हैं...ये प्रक्रिया समझना कठिनतम कार्य है..खैर। ग्रुप्स थे तो अब कुछ ग्रुप्स प्रमुखों की बात करते हैं-

नयन शाह- सबसे सस्टेनेबल ग्रुप के अहम् सदस्य। संभवतः अघोषित ग्रुप लीडर भी यही थे। एक अलग ही प्रकृति के वारिश थे..मूलतः इनकी प्रकृति गुट निरपेक्ष थी और ग्रुप के बाकी सदस्य भी बड़े न्यूट्रल मिज़ाज के, शांत चित्त लोग थे। किसी भी विवाद से ये ग्रुप और इस ग्रुप के अन्य सदस्य कोसों दूर थे..लेकिन नयन शाह खुद एक ऐसे विशेष पुरुष रहे हैं जिनकी वजह से कई लोग विवादों में घिरे हैं..आशीष मौ, इसमें सबसे ज्यादा पीड़ित शख्स थे। पहले नयन भाई के साथी सिर्फ ए.के. मण्डया जी थे, कालांतर में इन्हें जिनप्पा एवं रमेश शिरहट्टी द्वारा भी ज्वाइन किया गया। इनसे जुड़े बहुत किस्से हैं आपको याद आ रहे होंगे पर हम चर्चा समय पाके करेंगे।

अरहंत। ये किसी ग्रुप के लीडर थे या नहीं ये तो नहीं पता पर सर्वाधिक ग्रुपों से इनका वास्ता रहा है..पहले इनकी तिकड़ी पूरे स्मारक में वर्ल्ड फेमस थी, वरिष्ठ के मध्यांतर में इस तिकड़ी को चार और लोगों ने ज्वाइन किया जिनमें मैं भी शामिल था तथा तीन अन्य सदस्य सचिन, सोनल और अभय थे। फर्स्टईयर में ये 'एकला चलो रे' टाइप के हो गये थे और सेकेंडियर-फाइनल में सात लोगों का नया सशक्त सेवन और एक दम रफ एंड टफ ग्रुप इनके द्वारा ज्वाइन किया गया। ये स्वभाव से खासे आशिक मिज़ाज और शायराना हैं..मोहब्बत इनके लिये एक अहम् स्थान रखती है..और जिसे भी चाहते हैं डूब के चाहते हैं...मेरी वरिष्ठ उपाध्याय के प्रथम अर्धभाग में इनसे काफी शायराना जुगलबंदियां हुआ करती थी..और ये उस समय मेरे लिये एक ग्रेट मोटिवेटर की भूमिका निभाया करते थे। कई ख़ासियत हैं इनकी पर इनके व्यक्तित्व की जितनी परतें प्रस्तुत हैं उतनी ही शायद छुपी हुई भी..अरहंतवीर की उपमा प्याज से दी जा सकती है कि आप प्याज की परतें उतारते जाओ, उतारते जाओ और अंततः आपके हाथ में कुछ नहीं आयेगा पर ख़त्म होने पर ये एक महक छोड़ जायेंगे। आगे बात करेंगे....

मुकुंद। ये किसी ग्रुप के मेंबर नहीं है और इनकी प्रकृति ऐसी है कि इन्हें किसी ग्रुप में बांधा भी नहीं जा सकता। लेकिन एक बेहद मिलनसार व्यक्तित्व, जिसकी बातों से भी फूल झड़ा करते थे..हमारी कहान क्रिकेट टीम के स्ट्राइक बॉलर थे और विपक्षी टीम के बल्लेबाज़ों को विशेष रणनीतियां इनसे निपटने के लिये बनानी होती थी। अंकित सरल जी पर काफी फिदा थे ये स्मारक लाइफ के अंतिम दिनों में..इस फिदा सबको अन्यथा न ले। दरअसल, हमारे अंकित की अदाएं ही कुछ ऐसी थी कि उनपे कई लोग जान निसार किया करते थे। अंकित जी की बात करते हुए विस्तार से बात करेंगे..फिलहाल मुकुंद पर ही सीमित रहते हैं और परिचय को आगे बढ़ाते हैं....

अनुज। इन महाशय से ज्यादा पसंद तो इनके मोबाइल को किया जाता था..उस दौरान भी जब इनके पास नोकिया-1100 हुआ करता था...और इनके प्रमुख कद्रदानों में विवेक पिड़ावा का नाम सबसे ऊपर था...जो अनुज को देखते ही बोलते थे 'मोबाइल कहाँ है'...हास्य का भण्डार और अपने डिप्लोमेटिक पर्सनेलिटी के लिये टफ टू अंडरस्टेंड। ये भी एक ग्रुप के प्रमुख थे जिसमें शुरुआत में तीन सदस्य ही थे बाद में ये अपने इन तीनों सदस्यों को लेकर जीतू और अंकित के साथ मशरूफ हो गये थे। इनके बारे में इतने संस्मरण हैं कि जगह कम पड़ जाएगी..ये तीन साल बाद स्मारक परिसर से चले गये थे..लेकिन लोकल जयपुर के होने के चलते इनका अप-डाउन लगा रहता था..और अनुज का स्मारक में आना, अनायास ही उत्सवी माहौल बना देता था।

प्रमेश। अरे भाई ये बीन की आवाज क्यों सुनाई दे रही है..ओहह्ह् ओके प्रमेश का नाम जो आ गया। भाई ये भी बड़े ही अंतर्मुखी प्रकृति के मानुष थे..तकनीकी पदार्थों में इनकी विशेष दिलचस्पी रहा करती थी...और अपनी रुचि विमुख क्षेत्र में आ जाने के कारण ये निश्चित तौर पे अपने परिवार से नाराज होंगे..क्योंकि बंदे को इंजीनियर बनना था और वो कमबख्त शास्त्री बन गया। हेल्पिंग नेचर के व्यक्ति थे..CBI द्वारा कई काण्डों में इन्हें शरीक पाया गया और कुछ धाराएं अभी तक इनके ऊपर चल रही हैं..उच्च न्यायालय द्वारा राघवजी के खिलाफ सजा सुनाते वक्त संभवतः इनके केस की नजीर प्रस्तुत भी की जाएगी...पर इनकी मिलनसारिता काबिले-तारीफ है और ये अपने पे किये गये किसी भी मजाक को सीरियसली नहीं लेते..दरअसल ये किसी भी चीज को सीरियसली नहीं लेते और यही इनका सबसे बड़ा गुण है और यही सबसे बड़ा अवगुण...आगे बात करेंगे।

जयकुमार। तमिलनाड़ू की इकलौती शख्सियत थी ये जो पहले हमारी क्लास का हिस्सा थी। बाद में इनके मामाश्री द्वारा या पता नहीं उनसे इनका क्या रिश्ता था पर श्रीपाल जी द्वारा इन्हें हमसे एक क्लास नीचे डिमोट कर दिया गया था। शुरुआत में इन्हें हिन्दी न आने के कारण ये मजाक का अच्छा खासा विषय बन गये थे..पर बाद में बंदे ने गज़ब का इंप्रूवमेंट हासिल किया था..बाद में इन्होंन तमिल छात्रों की अच्छी खासी परंपरा शुरु कर दी..बाबू और रमेश जैसे दो नगीने भी तमिल से आये थे जो हमारे जूनियर थे और फाइनल ईयर में मेरे रूम पार्टनर भी इसलिये उनकी यहाँ विशेष याद आई।

आशीष- मौ के निवासी। अपनी विशेष प्रकृति के लिये कक्का के संबोधन से संबोधित। इन दिनों इनकी जिंदगी कंपलीटली सेटल हो गई है..कमाई भी हो रही है और लुगाई भी आ चुकी है। आशीष उस हर शख्स के लिये प्रेरणास्त्रोत साबित होने वाला व्यक्ति है जो वर्तमान की असक्षमताओं के बावजूद भविष्य में अपना मुकाम हासिल करता है। आशीष ने यही किया है..और कोई कभी किसी से वर्तमान के हालात को देख नकारा नहीं कह सकता। वैसे ये बड़े मजेदार प्राणी थे और इनकी भाषा सहज ही हास्य पैदा करने वाली थी...

बहरहाल, हमें फिर रुकना है...बस सफर के साथी पूरे होने में कुछ स्टेशन का फासला ही बाकी है
और जल्द ही वे भी आने वाले हैं...जो लोग सवार हो चुके हैं वो लोग उन्हें इत्तला कर दें..ये लफ्जों की ट्रेन उनकी शख्सियत के स्टेशन पे जल्द ही हार्न मारेगी.....

जारी...............

Pinkish Days In Pinkcity : Part - II

 पार्ट वन पढ़के ही इसमें प्रवेश करें....
(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
चलिए सफर को बढ़ाते हैं..कुछ पन्ने और पलटते हैं। जिंदगी की हसीन यादों के साये में घूमते हैं तब ये ज़रूरी नहीं कि हम जहाँ घूम रहे हैं वो गुजरा हुआ वक्त वाकई में हसीन हो..पर यकीन मानिये यादें हमेशा हसीन ही हुआ करती हैं। इसलिये अतीत चाहे कितना भी कड़वा क्यूं न हो पर उसकी यादें हमेशा हसीन हुआ करती हैं। परिचय चल रहा था..इसी क्रम में अगला जो शख्स है वो बेहद खास है, उसके परिचय में कई घटनाओं का समावेश सहज हो जाता है...शुरुआत में ये जितने दबंग के चुलबुल पांडे टाइप थे, आगे चलकर इन्होंने हम साथ-साथ हैं के प्रेम वाला रूप अख्तियार कर लिया था...

निपुण'छाती पे लात धरके जवान बाहर काड़ ले है'...इनके इस संवाद से ही महाशय की दबंगई की पराकाष्ठा जाहिर हो जाती है..सच बताऊं तो मुझे भी इन महाशय से शुरु में डर लगा करता था, इसलिये अपने अस्तित्व की प्रस्तुति और सुरक्षा के लिहाज से मैं इनके गुट में शामिल हो गया था..हमारे साथ तीसरे जो महानुभव जुड़े थे..वो थे निखिल। हम तीनों ही कभी मोती तो कभी नेहरु पार्क में बैठ स्मारक की बखैय्या उधड़ने में मशगूल रहा करते थे..नेहरू पार्क में निखिल का पेंट फटना, एक अविस्मरणीय संस्मरण है। एक नीरज पथरिया नाम का शख्स भी हुआ करता था हमारे बैच में..पर मैं उसका ज़िक्र करना भूल गया, अभी उसकी याद इसलिये आई कि निखिल का पैंट संभवतः इसी शख्स से बुलवाया गया था और ये दैवपुरुष राहुल बदरवास नाम के एक सीनियर का पैंट निखिल के लिये ले आये थे जोकि उस वक्त निखिल के रूम पार्टनर थे। सभी का तो पता नहीं, पर हम तीनों को ये संस्मरण याद करके बहुत मजा आ रहा है इसका मुझे यकीन है। नेहरु पार्क के बाहर 2 रुपये मिलने वाली भरपूर आइस्क्रीम हमें विस्मय में डाल देती थी...निपुण-निखिल से जुड़े बहुत वाक्ये हैं...लक्ष्मी टॉकीज में जॉनी दुश्मन मुवी, निपुण की क्रिकेट टीम और भी बहुत कुछ..पर उन सबकी बात बाद में। अभी परिचय को आगे बढ़ाते हैं...

राहुल। हमारी क्लास के पहले रॉकस्टॉर यही थे। एक प्रभावी वक्ता और डायनामिक व्यक्तित्व। इनकी एक बात मुझे हमेशा याद है जो इन्होंने मुझे संभवतः वरिष्ठ उपाध्याय में एक गोष्ठी में बोलने जाने से पहले कही थी..कि अपने विषय को इस कदय घोंट के पीलो कि नींद मे उठके भी तुम बोल सको...विषय याद रहेगा तो आत्मविश्वास अपने आप बढ़ जायेगा। मुझे पता है ये बात अब राहुल को भी याद नहीं होगी...पर यकीन मानो भले बहुत ज्यादा नहीं पर इस बात का मेरी वक्तव्य शैली पे असर ज़रूर पढ़ा था..और में पिछले पन्ने से निकलकर, हुनर की मुख्यधारा में आ पाया था...और भी यादें हैं..बात करेंगे उनपे भी।

अनुप्रेक्षा। दादा की पोती थी..लाइमलाइट में आने के लिये अलग से जतन करने की कोई आवश्यकता नहीं...पर फिर भी बेहद फ्रेंडली, अंडरस्टुड और डाउन टू अर्थ। हम लोगों का बर्ताव कभी इनके साथ औपचारिक नहीं रहा..सेकेंड इयर में दी गई इनके बर्थडे की पार्टी और फर्स्ट ईयर में रोहन के साथ इनके घर कंबाइन स्टडी के लिये जाना..लोगों को गॉसिप का मौका भी देती थी और अनावश्यक लोगों की क्युरोसिटी भी बढ़ाती थी...हाल ही में मैडम ने ग्रहस्थाश्रम में प्रवेश किया है और खुद में एक मॉसिव चेंज भी लाया है। बातें बहुत है पर चर्चा समय पाके।

धीरज मंदिर में एक विशेष मुद्रा में खड़े होकर दर्शन करना..और स्वयं को किसी दिव्य अवतार मानने के मुगालते से ये सर से पांव तक पीड़ित थे..अक्सर लोग इनसे दूर से बात किया करते थे तथा इनके हंसने की अदा पे तो लोग मर ही जाते थे..वाकई में मर ही जाते थे। लेकिन फिर भी जबेरा चौकड़ी में ये सबसे समझदार शख्स की कैटेगरी में शुमार थे..और इस चौकड़ी को अच्छे-बुरे का पाठ भी यही पढ़ाया करते थे।

अमित। ऊपर वर्णित शख्स से इनका विशेष दोस्ताना था जिसे लोग फिजूल में ही जॉन-अभिषेक वाला दोस्ताना मानते थे। सुमतप्रकाशजी की प्रतिछाया बनके आये थे पर उनकी प्रतिछाया बनके गये नहीं क्योंकि तब तक ये अपना ही व्यक्तित्व गढ चुके थे..इनका पानी का छन्ना और गघरिया इनका ट्रेडमार्क थी..मेरे जयपुर रुकने में इनकी अहम् भूमिका थी। अगर आपकी इनसे लड़ाई हो जाये तो आपको डरने की ज़रूरत नहीं है ये खुद को ही क्षत-विक्षत कर लेते हैं..इनका सिर खुद के सताये क्रोध के द्वारा ही 10 सेमी से 15 सेमी का हो चुका है। 2003 का क्रिकेट वर्ल्डकप हमने इनके द्वारा क्रय की गई टीवी पे इनके रूम में ही देखा था..इनके चुटकुले, सेंस ऑफ ह्युमर और 'केन लगे-केन लगे' कहके किसी बात को शुरु करना इनके व्यक्तित्व को विशेषता प्रदान करता है। आगे बात करेंगे...

अर्पित'सेकेंडियर वालों को पेपर चुचा गओ' 'मरे चाहे लड़े-मारे चाहे बुश हम तो दोईयन में खुश' इस तरह के संवाद अदा करता हुआ कोई शख्स यदि आ रहा है तो समझ लीजिये वो अर्पित है..काव्य प्रतिभा के धनी..तथा पारिस्थिकी हास्य, जिसे 'विट' कहा जाता है उसमें ये महारती थे। हमारी कक्षा के सभी विद्यार्थियों को एक कविता में समेटने वाली पहली कविता इन्होंने ही लिखी थी। बल्ले के विशेष संबोधन से जाने जाते थे हालांकि ये अपने नाम के आगे 'मानव' लिखा करते थे..और इसी मानव से हास्य-हास्य में ये आदिमानव और फिर बल्ले हो गये थे..ये बात सिर्फ मुझे और जीतू को याद आ सकती है..जो इनके नामकरण में भागीदार बने थे।

अमोल दो वर्ष बाद ये हमारे सफर से चले गये थे..पर विशेष प्रतिभा के धनी थे गायक भी थे और वादक भी। आज भी जहाँ कहीं भी हैं अपने हुनर का जलवा बिखेर रहे हैं..बेहद सेंसेटिव पर्सन, और इमोशनल..जिसकारण हर्ट भी जल्दी हो जाते थे...मुझे आज भी याद है 'कल हो न हो' देखते हुए ये मेरी सीट के बगल में बैठके आंसू बहा रहे थे...

प्रजय। अरे नई रे बाबा। ये इनका खास लहजा था। इनके मूंह का कुछ हिस्सा हमेशा खुला रहता था..जिसमें से कई जीव-जंतु अंदर-बाहर करते रहते होंगे...'फिर नई तो' कहके ये किसीकी बात का समर्थन किया करते थे..मुझे याद है जब क्षेत्रवाद से पीड़ित होके हमने वरिष्ठउपाध्याय में बुंदेलखंड विकास समिति बनाई थी तब ये अकेले मराठी थे जो हमारी समिति का हिस्सा थे। ये भी बस दो वर्ष हमारे साथ रहे।

प्रशांत। एकदम पढ़ाकू किस्म के, कम बोलने वाले और गंभीर प्रकृति के मानव। प्रायः हर क्लास में या तो प्रथम या द्वतीय स्थान इन्होंने ही प्राप्त किया था। क्रिकेट का शौक था पर कभी मुख्यधारा में नहीं आ पाये इसलिये किशोर की क्रिकेट टीम के उपकप्तान भी थे। हमसे इनका वास्ता बहुत कम हुआ या फिर हो सकता है हमारे एमपी वाले होने के चलते हम इनकी नज़रों में अछूत रहे होंगे(अब की बात नहीं है)..इसलिये कम संपर्क में रहे..इसलिये कभी डीप में परिचय नहीं हो पाया...

फिलहाल रुकते हैं...थोड़ा चाय-पानी लेले...सफर बहुत लंबा है..और भीड़ भी होने वाली है...निखिल, अंकित, जीतू, रोहन, अनुज का इंतज़ार अभी भी ज़ारी है....जल्दी आओ यार।।।।

Pinkish Days In Pinkcity : Part - I

(ये हमसब का व्यक्तिगत विवरण है..यूं तो इसकी टारगेट ऑडियंस सिर्फ हमारी क्लॉस के ही चुनिंदा शख्स हैं क्योंकि उन्हें ही मैं विशदता से जानता हूं और उनसे जुड़ी यादों को ही शेयर कर सकता हूँ फिर भी, कुछ और लोग भी इस संस्मरण से खुद को जुड़ा पा सकते हैं ये आपके area of interest पे निर्भर करता है।)
2002। यही वो वर्ष था जब अलग-अलग नगरों-गाँवों और भांत-भांत के प्रदेशों से कुछ मासूम, नटखट, स्मार्ट तो कुछ उबड़-खाबड़ सी शक्लों वाले नादान परिंदों के जयपुर के इस घरोंदे में इकट्ठे होने की दास्तां शुरू हो रही थी। हमें बताया गया कि ये इस बगिया का 26 वां गुलिश्ता है, जी हां बैच नं 26। एक गौरवशाली परंपरा में अब हमारे नाम भी चस्पा होने जा रहे थे। यूं तो कुछ खास नहीं था हममें..पर कुछ भी बिल्कुल खास न हो ऐसा भी नहीं था...वक्त की रेत पे अपने निशान छोड़ने की कुव्वत थी हममें..भले ही कुछ देर को ही सही। तो इस तरह हमारा कारवाँ जुड़ रहा था..हम बढ़ रहे थे और साथ ही पल रहा था उम्मीदों का भ्रूण हम सबके ज़हन में, जो कुछ कर दिखाना चाहता था..छा जाना चाहता था...लेकिन फिलहाल हम सिर्फ जीना चाहते थे इन लम्हों को..क्योंकि जिंदगी के सफर में हर चाहा हुआ पड़ाव तो आके मिलेगा ही पर ये गुजरे हुए लम्हें फिर लौट के आने वाले नहीं है..बस इसलिये हम इन्हें जी लेना चाहते थे।

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परिंदे थे जो इस एक डाल पे झूल रहे थे पर इनमें से तीन परिंदे कुछ वक्त बाद ही उड़ गये..अपने-अपने वतन को। क्योंकि उन्हें रास नहीं आ रहा था ये बदला हुआ परिवेश, यहाँ की आबो-हवा में व्याप्त एक सौंधी सी रुमानियत, जो शुरुआत में थोड़ी कसायली-सी लगती है। वे तीन चले गये थे पर अब भी वे हमारी यादों में बसर करते हैं और होती हैं उनसे हमारी मुलाकातें अक्सर ख्वाबों में या इस फेसबुक के संजाल पे। जी हाँ, विवेक रन्नौद, अभिषेक इन्दार, प्रवीण इन्दार। यही नाम थे इनके..थे मतलब अभी हैं पर इस सफर में वे आगे नहीं आये।

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अगस्त 2002 को मैं, संभवतः वो आखिरी शख्स था जिसने इस पहले से भरी हुई डाल पे अपना डेरा जमाया था। बड़ी मशक्कत के बाद मैं ठहरा रह सका, हमारे इस कारवाँ का हमसफर बना रह पाया..जिसमें कुछ लोगों का योगदान में कभी भी नहीं भूल सकता..उनका ज़िक्र में आगे करूँगा। पर अभी ज़रा इन परिंदों का परिचय पाले..हालांकि इनको शब्दों में समेटना मुमकिन नहीं है पर फिर भी अपनी उपयुक्त क्षमता और शब्दों की मर्यादा में रहते हुए इस प्रयास को करना ज़रूर चाहुंगा। जब इनके बारे में कुछ कहूँगा तो कथन में एक क्रम तो आएगा पर मेरी नज़र में ऐसा कोई क्रम नहीं है...और वे सब मेरे प्रमाण का विषय हैं, नय का नहीं। इसलिये एक अनएक्सपेक्टेड शख्स से ही शुरुआत करता हूँ, जो बेचारा इस फेसबुक के सायबर संजाल से कोसों दूर बैठा, जबेरा में सांसे ले रहा है...

सचिन इसकी आँख के किनोर पे किसी करेंट के मारे चस्पा हुआ एक निशान हमेशा एक अहम् चर्चा का विषय रहा..और शुरुआत में कुछ मासूम से पंछी इन्हें देख डर भी जाया करते थे। इनका एक वाक्य बड़ा पापुलर हुआ करता था "हैरान ने करो, यार"। दादा के संबोधन से संबोधित ये शख्स, अपने उपदेशप्रियता के लिये जाने जाते थे..कहने को बहुत कुछ है इनके बारे में पर आगे बात करेंगे..

सोनल 'ने कर यार, बडे भाई'। बड़े भाई के तकियाकलाम से अपनी खास छाप जमाने वाले सोनल..अपनी गज़ब की संवादअदायगी के लिये हमारे दिलों में आज भी हैं...देखन में छोटे लगे पर घाव करें गंभीर...बटलर, के खास संबोधन से इनका इस्तकवाल किया जाता था।

सन्मति'अरे नी यार' किसी भी बात को सुन महाशय की ये प्रतिक्रिया, बात की अहमियत को फिजूल में ही बढ़ा देती थी। शाही अंदाज, चाय के शौकीन और साथ ही दीर्घशंका भी इनका अहम् शगल हुआ करता था। कुछ दो-चार चले-चपाटों को अपने साथ ले जाके चाय पिलाके ये खुद की शाहीगिरि दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे।

विवेक। रविजी और पिड़ावा के दो अनमोल रतन, एक की बात तो हम ऊपर कर चुके हैं दूसरे अनमोल रतन यही हैं। हम्म्म्म्म हेरलेएएएए....कहके ये महाशय विंग में घूमा करते थे...और भांत-भांत के चिड़िया-कौव्वों की आवाजें निकालकर ये ज़ाया करते रहते थे कि एक अच्छा-खासा चिड़ियाघर इनमें बसता है..'काईं वैंडो हो रियो है' कहके अपने ख़ालिश पिड़ावा वाले होने का परिचय दिया करते थे..इनकी दास्तां बहुत है, आगे बात करेंगे।

किशोर। झूम बराबर झूम शराबी..एक लाजबाव शख्सियत। 'ये क्या कोई उठाने की पद्धति है" ये वाला संवाद इन्होंने शायद वरिष्ठउपाध्याय में बोला था पर इसे बोलने की अदा कुछ ऐसी थी कि ये उनका सिग्नेचर शॉट बन गया था। इनकी बनाई गई क्रिकेट टीम सबसे ज्यादा पॉपुलर क्रिकेट टीम थी और प्रवचन के बीच भी अगले दिन के क्रिकेट के लिये किशोर भाई की रणनीतियां बना करती थी।

सतीश। एक गुमनाम सी रहने वाली शख्सियत। बहुत ज्यादा ग्लैमर से दूर ये अपने काम से काम रखा करते थे..मैं खुद इन्हें समझने के जतन में लगा रहा पर समझ नहीं पाया...क्योंकि ये अपने व्यक्तित्व के पट इस क़दर बंद रखा करते थे कि कोई चुपके से भी उसमें नहीं घुस पाता था।

निखिल...निपुण..राहुल...रोहन...जीतू...अंकित..अरहंत..अभय...अनु और भी बहुत से पन्ने हैं जिन्हें पलटना है पर अभी के लिये इतना ही...थोड़ा इंतजार कीजिये, वैसे आप सभी इनके बारे में जानते हैं पर फिर से रीकॉल करने का मजा ही कुछ और है......

जारी...............